रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Friday, 9 August 2013

है अकेला आदमी


हरे रिश्तों
की, हुई बंजर ज़मीं
स्नेह वर्षा को तरसता आदमी।
 
माँ पिता ने
बीज सींचे स्वार्थ बिन।
सोच थी देंगे सुफल, ये एक दिन।
मगर यह क्या? पर्ण पीले पड़ गए,
उड़ गई गहरी जड़ों से
भी नमी।
 
बाँध सपने
चले अपने छोकर।
आशियाँ से, तार हिय के तोड़कर।
यह न सोचा, क्या मिलेगा शहर में?
सुख की चादर त्याग, ओढ़ी
खुद मी।
 
अब तो घर
सुनसान, चेहरे म्लान हैं। 
लुट चुकी खुशियाँ पिटे अरमान हैं।
फटी गठरी और बिखरे ख्वाब सब
भीड़ है, पर है अकेला
आदमी।
-कल्पना रामानी

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--कल्पना रामानी

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