पावस का इस बार देश पर,
प्यार बहुत उमड़ा है।
लेकिन क्या सुख संचय होगा?संशय नाग
खड़ा है।
मक्कारी, गद्दारी, लालच
शासन के कलपुर्ज़े।
बूँद-बूँद को चट कर देंगे
घन बरसे या गरजे।
भरे सकल जल-स्रोत लबालब
सागर ज्वार चढ़ा है।
मगर उसे नल नहलाएगा?
चिंतित मलिन
घड़ा है।
बन मशीन मानव ने भू के
रोम-रोम को वेधा।
क्यों कुदरत फिर क्षुब्ध न होगी
रुष्ट न होंगे मेघा!
अमृत वर्षा से खेतों का
कण-कण जाग पड़ा है।
पर किसान का उत्सव होगा?
उत्तर यहीं
अड़ा है।
-कल्पना रामानी
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