रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Friday 14 December 2012

महानगर में यौवन आया














ऊँची ऊँची इमारतें है,
छोटे छोटे फ्लैट।
इमारतों से भी ऊँचे हैं,
लेकिन इनके रेट।

महानगर में उड़कर आया,
यौवन पंख लगाए।
अपने खोए, हुए अकेले,
क्या हो अब पछताए।
दिन भर बहे पसीना चाहे,
भरे न फिर भी पेट।
 
राजा बनकर रहे गाँव के,
अब मजदूर शहर में।
रहने को मजबूर हो गए,
दड़बों जैसे घर में।
हुक्म चलाया कभी वहाँ पर
अब धोते कप-प्लेट।
 
जीवन शैली दिखावटी है,
रहते फिर भी ऐंठे।
बदल रहे नित नए मुखौटे,
खुद से छल कर बैठे।
सपने सारे टूटे बिखरे,
हो गए मटियामेट।

-----कल्पना रामानी

7 comments:

Unknown said...

बहुत ही सुन्दर आदरणीया! शहरीकरण की हकीकत को जिस खूबसूरती से आपने उकेरा है उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है। आपका यह नवगीत नए लिखने वालों के लिए उदाहरण है शिल्प और कथ्य की सहजता की दृष्टि से।
सादर!

अज़ीज़ जौनपुरी said...

सार्थक अभिव्यक्ति

Vindu babu said...

आदरेया आपकी इस सार्थक रचना को 'निर्झर टाइम्स' पर लिंक करके कुछ गति देने का प्रयास किया गया है।कृपया http://nirjhar-times.blogspot.com पर अवलोकन करें और आपकी प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित है।

Rewa Tibrewal said...

sundar abhivyakti

आर्यावर्त डेस्क said...

Nice !!!

www.liveaaryaavart.com

Onkar said...

हकीकत बयां की है आपने

रश्मि शर्मा said...

हकीकत को शब्‍द दि‍ए आपने...बधाई

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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