ऊँची ऊँची इमारतें है,
छोटे छोटे फ्लैट।
इमारतों से भी ऊँचे हैं,
लेकिन इनके रेट।
महानगर में उड़कर आया,
यौवन पंख लगाए।
अपने खोए, हुए अकेले,
क्या हो अब पछताए।
दिन भर बहे पसीना चाहे,
भरे न फिर भी पेट।
राजा बनकर रहे गाँव के,
अब मजदूर शहर में।
रहने को मजबूर हो गए,
दड़बों जैसे घर में।
हुक्म चलाया कभी वहाँ पर
अब धोते कप-प्लेट।
जीवन शैली दिखावटी है,
रहते फिर भी ऐंठे।
बदल रहे नित नए मुखौटे,
खुद से छल कर बैठे।
सपने सारे टूटे बिखरे,
हो गए मटियामेट।
-----कल्पना रामानी
7 comments:
बहुत ही सुन्दर आदरणीया! शहरीकरण की हकीकत को जिस खूबसूरती से आपने उकेरा है उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है। आपका यह नवगीत नए लिखने वालों के लिए उदाहरण है शिल्प और कथ्य की सहजता की दृष्टि से।
सादर!
सार्थक अभिव्यक्ति
आदरेया आपकी इस सार्थक रचना को 'निर्झर टाइम्स' पर लिंक करके कुछ गति देने का प्रयास किया गया है।कृपया http://nirjhar-times.blogspot.com पर अवलोकन करें और आपकी प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित है।
sundar abhivyakti
Nice !!!
www.liveaaryaavart.com
हकीकत बयां की है आपने
हकीकत को शब्द दिए आपने...बधाई
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