Wednesday, 8 June 2011
सागर के सामने
ख्वाबों का इक शहर है,
सागर के सामने।
मेरा भी यहीं घर है
सागर के सामने
तपती है शुष्क रेत सी,
चहुं ओर ज़िंदगी,
हर शख्स अकेला है,
अपनों में अजनबी।
एकाकी शख्सियत ही
मुंबई की शान है,
अपनी ज़मीन सबकी
निज आसमान है
उगते ही भोर जीवन,
लगता है भागने,
हैं दौड़ती कतारें
सागर के सामने।
मन उड़ चला मचलती
लहरों को देखके,
जहां आसमां समंदर,
दिखते हैं एक से।
किस ओर है किनारा,
कुछ भी नहीं पता,
जल के ही जलजले हैं
जीवन है लापता
बस झुक रहा गगन है,
लहरों को थामने,
नज़रों में सब नज़ारे,
सागर के सामने।
है छलकता समंदर,
मदमाते जाम सा,
हिस्से में है मेरे भी
यह टुकड़ा शाम का।
सूरज का डूबना तो,
दिखता कमाल है,
फिर चंद्रमा का आना
बस बेमिसाल है
ठंडी हवा चली है,
सुख चैन बाँटने,
सजने लगे सितारे,
सागर के सामने।
घर से तो हम चले थे,
इक ठौर के लिए,
रुक रुक के चलते चलते,
बंजारे बन गए।
कई मोड थे सफर में,
थीं मंज़िलें कई,
जब जब मिला नया घर
कविता बनी नई
बीती है ज़िंदगानी,
मंज़िल की चाह में,
शायद हो आखिरी घर
सागर के सामने।
-कल्पना रामानी
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आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।
धन्यवाद सहित
--कल्पना रामानी
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