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कल्पना रामानी

Monday, 11 November 2013

हौसलों के पंख-सर्जना की उड़ान-यश मालवीय


रचनाधर्मिता के बीज, किसी भी उम्र में रचनाकार मन में सुगबुगा सकते हैं और छाया दर दरख्त बन सकते हैं। इनके साथ उम्र का कोई बंधन नहीं होता है। पाँच साल की तोतली उम्र से लेकर सौ साल की जीवेत शरद: शतम वाली उम्र तक कविता या सृजन सतत संतरण कर सकता है। इस बात की ताजा मिसाल है, मेज पर रखीखुली पाण्डुलिपि “हौसलों के पंख” जिसकी रचनाकार हैं कल्पना रामानी। ब्लॉग या नेट की दुनिया से जुड़े बंधुओं के लिए यह नाम नया नहीं है। शारजाह में रह रहीं प्रवासी भारतीय सुश्री पूर्णिमा वर्मन के साथ अनुभूति और अभिव्यक्ति डाट काम से जुड़ा यह नाम इस विधा का अब एक प्रिय नाम बन चुका है। साठ की उम्र के बाद गीत विधा को एक मूल्य की तरह अपनाने वाली कल्पना जी अब पैंसठ के आसपास हैं और कम समय में लगभग इतने ही गीतों की रचना कर चुकी हैं, जो नवगीत के निकष पर
सोलह आने खरे उतरते हैं। संग्रह का दूसरा ही गीत लें
टुकुर टुकुर कर ताके चिड़िया,
नन्हाँ उसका भूखा।
कैसे जाए दाना लाने,
खेतों खड़ा बिजूखा।
  बिजूखा, बिजूखा होते हुए भी आज की हिन्दी कविता का सबसे जिंदा प्रतीक है जो भूख के रास्ते में एक बाधा की तरह प्रस्तुत है। चिड़िया परेशान है अपने चिरौटे की भूख को लेकर लेकिन निराश नहीं है। नन्हीं चिड़िया में नन्हीं आशा का सूरज
दिपदिपाता रहता है, तभी तो गीत के अंतिम चरण में कल्पना रामानी कहती हैं
नन्हीं चिड़िया नन्हीं आशा,
करे न अहित किसी का।
नहीं छीनना फितरत इसकी,
और न संग्रह सीखा।
मानव में ही उसने पाया,
फीका रंग लहू का।
यही कवयित्री की चिंता का केन्द्रीय विषय है कि उसे मानव में ही लहू का रंग फीका दिखाई पड़ रहा है। गीत कवि अवध बिहारी श्रीवास्तव याद आते हैं, कहते हैं-
पत्थर की नगरी आए हैं
हमको भी पत्थर होना है
सुखद आश्चर्य है की मुंबई जैसे मशीनी और आपाधापी वाले यांत्रिक हो चले  महानगर में भी कल्पना जी ने कविता और जीवन के लिए फूल सी संवेदनाएँ सहेज रखी हैं ये संवेदनाएँ अपने पास हौसलों के पंख रखती हैं जिससे वे नाप आती हैं, जाने कितने ही अंजान क्षितिज, जाने कितने कितने आसमान।  
संग्रह में कुल पैंसठ गीत हैं, ये पैंसठ गीत नहीं पैंसठ अर्थ छवियाँ हैं जिनके कथ्य और शिल्प में सहज सामंजस्य का सौजन्य है। प्रथम गीत हौसलों के पंख से लेकर अंतिम गीत फिर से खिले पलाश तक गीतों का एक अत्यंत आत्मीय सा कोष्ठक बनता है, जो फागुन के आने को और भी रसवंत बना जाता है-
फागुन आया सघन वनों में,
फिर से खिले पलाश।
एक तरफ कचनार खड़े थे।
गुलमोहर भी बढ़े चढ़े थे।
लगता था कुदरत ने जैसे,
फुर्सत में सब पात्र गढ़े थे।
हतप्रभ मन से सोच रही थी,
रुक जाएँ पल काश!!
  1. बक़ौल निदा फ़ाजली हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी वाले शहर में रहकर भी कल्पना जी कचनार, पलाश, गुलमुहर और फागुन कोइतने स्नेह से देख पा  रही हैं, यह अपने आप में मूल्यवान है।
मैं हृदय के अतल से इन गीतों का वंदन करता हूँ।

 ११-०९-२०१३                      यश मालवीय
                                  रामेश्वरम
        ए-१११ मेंहंदौरी कालोनी, इलाहाबाद-२११००४   

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--कल्पना रामानी

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