गाँवों के पंछी उदास हैं
देख-देख सन्नाटा भारी।
जब से नई हवा ने अपना
रुख मोड़ा शहरों की ओर।
बंद किवाड़ों से टकराकर
वापस जाती है हर भोर।
नहीं बुलाते चुग्गा लेकर
अब उनको मुंडेर, अटारी।
हर आँगन के हरे पेड़ पर
पतझड़ बैठा डेरा डाल।
भीत हो रहा तुलसी चौरा
देख सन्निकट अपना काल।
बदल रहा है अब तो हर घर
वृद्धाश्रम में बारी-बारी।
बतियाते दिन मूक खड़े हैं
फीकी हुई सुरमई शाम।
घूम-घूम कर ऋतु बसंत की
हो निराश जाती निज धाम।
गाँवों के सुख राख़ कर गई
शहरों की जगमग चिंगारी।
-कल्पना रामानी
No comments:
Post a Comment