रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Wednesday 26 March 2014

गुलमोहर की छाँव गाँव में

 
गुलमोहर की छाँव, गाँव में
काट रही है दिन एकाकी।
 
ढूँढ रही है उन अपनों को
शहर गए जो उसे भुलाकर।
उजियारों को पीठ दिखाई
अँधियारों में साँस बसाकर।
 
जड़ पिंजड़ों से प्रीत जोड़ ली
खोकर रसमय जीवन-झाँकी।
 
फल वृक्षों को छोड़ उन्होंने
गमलों में बोन्साई सींचे।
अमराई आँगन कर सूने
इमारतों में पर्दे खींचे।
 
भाग दौड़ आपाधापी में
बिसरा दीं बातें पुरवा की।  
 
बंद बड़ों की हुई चटाई
खुली हुई है केवल खिड़की।
किसको वे आवाज़ लगाएँ
किसे सुनाएँ मीठी झिड़की।
 
खबरें कौन सुनाए उनको
खेल-खेल में अब दुनिया की।
 
फिर से उनको याद दिलाने
छाया ने भेजी है पाती।
गुलमोहर की शाख-शाख को
उनकी याद बहुत है आती।  
 कल्प-वृक्ष है यहीं उसे
पहचानें और न कहना बाकी।

-कल्पना रामानी

2 comments:

Unknown said...

आह बहुत सुन्दर गीत और इसके भाव। मर्म बहुत ही लाज़वाब रूप से उल्लेखित किया आपने आदरणीय बधाई

एक नज़र :- हालात-ए-बयाँ: ''जज़्बात ग़ज़ल में कहता हूँ''

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुन्दर गीत

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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