कर कोमल, या पाँव तुम्हारे?
मगर कह नहीं पाते होंगे
नेह, मोह, ममता
के मारे।
जगा सुबह को, प्रथम बाँचती
तुम घर की राहत का लेखा।
जुटती फिर क्रमबद्ध, खींचकर
अपनी हर चाहत पर रेखा।
सुन लेती हो माँ! हम सबको
स्वयं किसी के बिना
पुकारे।
चक्र लगे शायद पैरों में
उस पल बाहर, इस पल अंदर
रूप तरसता, तुम्हें न परवा
फिर भी माँ, तुम कितनी सुंदर!
कभी न जाना, तुमने किस पल
तेल मला या बाल
सँवारे।
महका करती पाक रसोई
स्नेहिल-स्वाद सजाते टेबल।
भाप उड़ातीं गरम रोटियाँ
हमें बुलातीं होकर बेकल
बड़े नसीबों वाले हैं हम
खुशनसीब हैं भाग्य हमारे।
सुगढ़ गृहस्थी की चुनरी में
माँ! तुमने हर सुख को टाँका
भली दुआ ने नज़र उतारी
बुरी बला ने कभी न झाँका
रब से बस अरदास यही है
फले मातृ-सुख द्वारे-द्वारे।
-कल्पना रामानी
1 comment:
सुन्दर रचना
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