"हौसलो के पंख हो तो चिर विजय
होगी" इसी रचना में वे आगे लिखती हैं कि - "मंजिलों को पा ही लेंगें कर्मरत योगी" तथा "ठोस हों संकल्प यदि तो साथ देगी हर लहर" कल्पना जी के इस
संकलन की रचनाओं में महिला शक्ति, अधिकार
व स्वतंत्रता के साथ ही कन्या भ्रूण हत्या (अजन्मी बेटी) जैसे विषय पर सामाजिक
सरोकार यत्र तत्र सर्वत्र मिलते हैं, वहीँ पर्यावरण के प्रति जागरूकता भी
स्पष्ट रूपेण दृष्टिगत होती है।
सखि
नीम तले, सावन (सावन का सत्कार), बसन्त
(ऋतु बसन्त आई), बरसात (स्नेह सुधा बरसाओ मेघा), ग्रीष्म
(गरम धूप में बचपन ढूँढे), पतझड़
व शीत ऋतु जैसी रचनाएँ उनके प्रकृति प्रेम
की बहुरंगता को दर्शाती हैं। जहाँ “बेटी
तुम”, “अजन्मी बेटी”, “पापा तुम्हारे लिए”, “कहलाऊँ
तेरा सपूत”, “नारी जहाँ सताई जाए”, “आज की नारी”,
“माँ के बाद” व ‘गीत मन के मीत”
में नारी ह्रदय की सहजता,
सरलता व आत्मीयता अत्यंत अपनत्व सनी बन
पड़ी है, वहीं कृतज्ञता की अभिव्यक्ति में "तुम्हे
क्या दें गंगा माँ" शीर्षक रचना में क्या खूब लिखा है -" ऋणी रहेगा सदा
तुम्हारा माटी के इस तन का कण कण। ऐसा कुछ
सद्ज्ञान हमें दो संस्कृति का फिर से प्रवेश हो"
"मद्य निषेध सजा पन्नों पर”में – “दीन
देश की यही त्रासदी” जैसी रचनाएँ समाज
में व्याप्त कुरीतियों
पर कवयित्री की चिंता तथा समाज सुधार के लिए
उनके नारी मन की व्यग्रता दर्शाती है। मातृभाषा हिंदी के सम्बन्ध में लिखी गई रचना-
"हस्ताक्षर हिन्दी के" व "हिन्दी की मशाल" की ये पंक्तियाँ तो कंठस्थ कर लेने जैसी है :-
"हिन्दी का इतिहास पुराना/ सकल विश्व ने भी यह माना/ शब्द शब्द में छिपा हुआ है/संस्कृति का
अनमोल खजाना"
" जय भारत माँ " शीर्षक वाली रचना उनके देश
प्रेम / राष्ट्रीय भावनाओं को उजागर करती है वहीं वृक्षों की बिना सोचे समझे कटाई पर कवयित्री का भावुक
मन जिस तरह वयथित हो जाता है उसे "करणी का फल धरणी देगी" शीर्षक की रचना
में देखा जा सकता है।
सभ्यता की चकाचौंध
में शहरों के आकर्षण व ग्रामों की दुर्दशा के बारे में कितना सही लिखा है
:-"भीड़ है पर है अकेला आदमी/स्नेहवर्षा को तरसता आदमी" आज राजनीति के
दुश्चक्र में सामान्य आदमी की जो
दुर्दशा हुई है और जन नेता जन-जन का जिस तरह शोषण कर रहे है उसे भी आपने बड़ी वेदना
के साथ भावुक शब्दों से अपनी रचना में उकेरा है :" राजा बनकर
रहे गाँव में, अब
मजदूर शहर में, रहने को मजबूर हो गए, दड़बों जैसे घर में .....शोषित है अब जनता सारी, करुण कथा अब किसे कहें? जो समर्थ हैं वही लुटेरे हर सीमा को लाँघ रहे ...."
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कल्पना जी द्वारा रचित "हौसलों के
पंख" समाज व वातावरण के विभिन्न आयामों को
बड़ी कुशलता व कुशाग्रता से अभिव्यक्त कर रही है। वे इसी तरह अनवरत साहित्य सृजन करते हुई
हिन्दी पाठकों व कविता रसिकों की आशा अपेक्षाएँ पूर्ण करती रहेंगी इसी विश्वास के साथ ...
शुभकामनाओं सहित ..
वीरेश अरोड़ा "वीर
1 comment:
समीक्षाकार द्वारा की गई समीक्षा से ज्ञात होता है कि पुस्तक को हृदय से पढ़कर समीक्षा की गई है. रचनाकार एवं समीक्षाकार दोनों को बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ...
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