इंसान की ज़िंदगी अनेक हिस्सों में बँटी
हुई होती है। मैं अपनी बँटी हुई ज़िंदगी का अंतिम हिस्सा पूर्ण रूप से साहित्य को
समर्पित कर चुकी हूँ। इसी सिलसिले की एक कड़ी है मेरी लखनऊ यात्रा।
आरक्षण की परेशानियाँ, घर से
स्टेशन तक पहुँचने तक घंटों संघर्ष भोपाल में गाड़ी बदलना आदि बाधाओं को पार करके १४ नवंबर को सुबह बारह बजे के आसपास मैं लखनऊ स्टेशन पर थी। मुझे रिसीव करने की
जवाबदारी संध्या जी की थी। वे समय पर स्टेशन पहुँच गईं, कपड़ों के रंग और
चित्रों में देखे हुए चेहरों के आधार पर पहचान हुई। दूर की बहनें भरे नयन से गले मिलीं और मैं नए
पड़ाव पर जो पूर्णिमा जी का अपना घर था, पहुँचकर उनके परिवार के सदस्यों में शामिल हो गई।
दिन भर संध्या जी से बातें और आराम करने
में बीता। हम अपने हरेक पल का सदुपयोग करने में लगे थे। पूर्णिमा जी देर रात को
पहुँचीं। उस दिन संध्या जी मेरे साथ ही रुकीं। भोजन की व्यवस्था भी घर पर ही हुई,
पूर्णिमा जी के माँ- पिता के अपनेपन और प्रेमपूर्ण व्यवहार ने मन मोह लिया। पल भर
को अहसास नहीं हुआ कि मैं घर से दूर हूँ। सुबह नौ बजे पूर्णिमा जी से मिलने का
सौभाग्य प्राप्त हुआ। नमस्ते हुई और हम
बहनों की तरह गले मिलीं। जिसे गुरु मानकर एक साल से मन में बसाए हुए थी, अचानक
उनसे मिलकर जो प्रसन्नता हुई, उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता।
फिर पूर्णिमा जी अपने आवश्यक कार्यों
में व्यस्त हो गईं, उनकी अति व्यस्त दिनचर्या और साहित्य सेवा को समर्पित जीवन
शैली देखकर मैं बहुत प्रभावित हुई। पूरा
परिवार साहित्य सेवा के लिए तत्पर था। माँ, पिता
और पति का सक्रिय योगदान उनको पूरी तरह मिल रहा था।
१५ और १६ तारीख के उनके दिन तैयारियों
में बीत गए। बालकनी में नवगीतों के सुंदर,सचित्र पोस्टर वाल पर सज गए। मैं सब
कुछ बड़ी उत्सुकता से देखती रही। सारी व्यवस्थएँ बड़े सुंदरता से पूर्ण हुईं। १६ की शाम
से अतिथियों का आगमन शुरू हो गया। स्वागत के बाद पूर्ण सुविधाओं से सजे कमरों में उन्हें ठहराया
गया। सारी व्यवस्था उस बिल्डिंग की दसवीं मंज़िल पर की गई थी। हाल में कार्यक्रम और
खुले स्थान पर भोजन की व्यवस्था थी। उसी दिन ही चित्र मित्रों से साक्षात मिलने का
सिलसिला शुरू हो गया। जाने पहचाने चेहरों,श्रीकांत मिश्र कान्त, सीमा
अग्रवाल, आभा खरे, श्री जगदीश व्योम, श्री अवनीश कुमार चौहान, श्री
रामशंकर वर्मा, के अतिरिक्त अन्य
प्रदेशों से आए अनेक विद्वानों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सबको देख देख कर
मन भाव विभोर हो उठा।
१७ तारीख की सुबह चाय नाश्ते के बाद
कार्यक्रम शुरू हुआ। प्रस्तुत है संक्षिप्त विवरण---
सर्वप्रथम दीप प्रज्वलन और सरस्वती
वंदना के बाद राजेन्द्र गौतम जी का वक्तव्य आरंभ हुआ। हर बात को सामने लगी हुई स्क्रीन पर अच्छी तरह
दिखाकर समझाया गया। कुछ प्रश्न उत्तर के बाद हम अभिव्यक्ति समूह के सदस्यों को
अपने नवगीत प्रस्तुत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं इन बातों से पहली बार रूबरू
हो रही थी अतः मेरी सुविधा के लिए कुछ सदस्यों की प्रस्तुति के बाद मुझे आमंत्रित
किया गया। अब तक मन को तैयार कर चुकी थी, इसलिए सब सहज महसूस हुआ। मैंने
पूर्णिमा जी के निर्देश के अनुसार अभिव्यक्ति समूह से जुडने का संस्मरण पढ़ने के
बाद अपना नवगीत प्रस्तुत किया। हम सबके गीत काफी सराहे गए और उपस्थित विद्वानों
द्वारा प्रतिक्रिया भी दी गई।
इनमें राजेन्द्र गौतम जी,कुमार
रवीन्द्र जी और जगदीश व्योम जी जाने पहचाने नाम थे। शेष सभी विद्वानों से धीरे
धीरे परिचय होता रहा।
भोजन अंतराल के बाद अलग अलग प्रान्तों से
आए अतिथि विद्वानों द्वारा नवगीत के उद्भव और विकास पर वक्तव्य आरंभ हुआ और
प्रश्नोत्तर भी चलता रहा। संध्या समय चायपान के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए। गायन, नाट्य
फिल्म के बाद कलाकारों को पुरस्कार वितरित किया गया। इस तरह १७ नवंबर का
कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।
१८ नवंबर को सुबह १० बजे कार्यक्रम
आरंभ हुआ। नवगीत की अस्मिता के सवाल पर कुमार रवीन्द्र जी और नवगीत के विकास के लिए किए जाने वाले
कार्यों पर पूर्णिमा जी के वक्तव्य हुए। अन्य प्रतिभागियों ने भी अपने अपने विचार
प्रस्तुत किए।
भोजन के बाद श्री मनोज जैन और श्री
अवनीश सिंह चौहान के नए नवगीत संग्रह पर समीक्षा और वक्तव्य हुए। उपस्थित सदस्यों
को संग्रह की प्रतियाँ भी वितरित की गईं। फिर चायपान के बाद उपस्थित कवियों द्वारा
कविता पाठ आरंभ हुआ जो कार्यक्रम की समाप्ति तक चलता रहा। हम अभिव्यक्ति समूह के
सदस्यों को फिर से अपने गीत प्रस्तुत करने का अवसर मिला। मैंने भी अपने दो नवगीत
प्रस्तुत किए।
आज मैं नए आत्म विश्वास से भरी हुई
थी। इसलिए सब कुछ सहज रूप से सम्पन्न हुआ। सबके गीतों के साथ मेरे नवगीतों को भी
पसंद किया गया। अंत में आभार प्रदर्शन के बाद सबकोपूर्णिमा जी द्वारा स्मृति चिह्न प्रदान किए गए यह दिन मेरे साहित्यिक जीवन का सबसे सुंदर दिन था। मैं उन अद्भुत
सुंदर पलों को कभी नहीं भूल सकती जब कार्यक्रम की समाप्ति के बाद बाहर आते ही
पूर्णिमा जी ने मुझे गले से लगा लिया। उन अविस्मरणीय क्षणों की खुशी शब्दों में बयान नहीं
कर सकती।
१९ तारीख का दिन थकान उतारने में निकल गया। २० तारीख शाम को वापसी के लिए निकलना था। उस दिन
हमारे समूह के मित्र रामशंकर जी आग्रह
पूर्वक मुझे अपने घर लेकर गए। वहाँ जाकर अपने जीवन का एक बीता हुआ हिस्सा पुनः
सामने आ गया। ग्राम्य जीवन की झलक दिखाती हुई उनकी जीवन शैली ने बहुत प्रभावित किया।
घर में दुधारू गाय, आँगन वाड़ी में उगाई गई सब्जियों की पौध, खुला
माहौल देखकर अपने पुराने दिनों में खो गई। परिजनों का अति उत्साह और प्रेम अतुलनीय
था। दिन जल्द ही गुज़र गया।लंबी यात्रा करनी थी, रामशंकर जी की
धर्मपत्नी ने बड़े प्रेम से भोजन खिलाकर दूसरे दिन के लिए भोजन के साथ साथ गाय के दूध की अपने हाथ से बनाई हुई मिठाई भी
रास्ते के लिए पैक कर दी। स्टेशन पर छोडने रामशंकर जी आए। शाम आठ बजे मैं
गाड़ी में थी। स्टेशन छूटते ही वहाँ की यादों में खो गई। सारी बातें चलचित्र की तरह
सामने से गुजरती रहीं।
एक सप्ताह तक बिताए उन सुंदर सुनहरे
पलों को मैं आजीवन नहीं भुला पाऊँगी। संध्या जी की आँखों में छलकता हुआ सहज प्रेम,
पूर्णिमा जी के बुजुर्ग माँ-पिता का आशीर्वाद और अपनी गुरु बहन पूर्णिमा जी का
सुखद साथ, उनके पति का सहज स्नेहपूर्ण व्यवहार मन में सदा के लिए बस गया।
इंसान सिर्फ सच्चे मन से इच्छा करे तो उसे पूर्ण करने में कुदरत भी सहायक
होती है। जिस तरह अभिव्यक्ति समूह से जुडते ही मन में पूर्णिमा जी को बसा लिया था
और अपने जीवन की अंतिम इच्छा के रूप में उनसे प्रत्यक्ष मिलने का सपना मन में पाल
लिया था, वह इस तरह इतनी जल्दी पूर्ण हो जाएगा इसकी कल्पना भी नहीं
की थी। वहाँ से वापस आने के बाद स्वयं को अति आत्मविश्वास और नई ऊर्जा,से भरपूर पा रही हूँ। इस पूर्ण रूप से
साहित्य सेवा को समर्पित परिवार को मेरा शत शत नमन।
उन सब विद्वानो का हृदय से आभार, जिनसे हमें बहुत कुछ सीखने और आगे बढ्ने की प्रेरणा मिली।
प्रस्तुत है उन सुहानी
यादों पर आधारित यह गीत जो सफर के दौरान ट्रेन में ही तैयार होता रहा और यहाँ आकर
उसे पूर्ण किया।
चलते चलते
सीटी बजते गाड़ी चल दी
नवगीत परिसंवाद के ससमरण पर की गई फेसबुक मित्रों की कुछ टिप्पणियाँ
चलते चलते
सपना टूट गया।
इस मन का इक कोमल कोना
पीछे छूट गया।
चलते चलते थकी उम्र में
आया सुखद पड़ाव
उमड़ पड़े लखनऊ शहर में
अनगिन संचित भाव।
मगर काल कब कहाँ रुका है
जो होता ठहराव
चार दिनों का मेला था फिर
तम्बू ऊठ गया।
चित्र मित्र चेहरे थे सम्मुख
विद्वानों का साथ।
दौर चले भाषण बहसों के
सबने कर ली बात।
शब्दों के फिर थमें सिलसिले
मौन हुए जज़्बात
संवादों का भरा कलश वो
चुप चुप फूट गया।
मुट्ठी भर आकाश मिला था
खिला पूर्णिमा चाँद।
सकल सितारों ने गीतों से
समां लिया था बाँध।
छूट गए वो उत्सव के दिन
बाकी उनकी याद।
सुंदर अक्स दिखाकर दर्पण
तत्क्षण टूट गया।
बने रहें मेले जीवन में
यही ईश से चाह।
सर्व जनों को मिलें मंज़िलें
दिखे सदा सद राह।
सिखा गया यह पर्व दिलों को
निश्छल प्रेम अथाह
कोना कोना जुटा और, नव
जीवन फूँक गया।
इस मन का इक कोमल कोना
पीछे छूट गया।
चलते चलते थकी उम्र में
आया सुखद पड़ाव
उमड़ पड़े लखनऊ शहर में
अनगिन संचित भाव।
मगर काल कब कहाँ रुका है
जो होता ठहराव
चार दिनों का मेला था फिर
तम्बू ऊठ गया।
चित्र मित्र चेहरे थे सम्मुख
विद्वानों का साथ।
दौर चले भाषण बहसों के
सबने कर ली बात।
शब्दों के फिर थमें सिलसिले
मौन हुए जज़्बात
संवादों का भरा कलश वो
चुप चुप फूट गया।
मुट्ठी भर आकाश मिला था
खिला पूर्णिमा चाँद।
सकल सितारों ने गीतों से
समां लिया था बाँध।
छूट गए वो उत्सव के दिन
बाकी उनकी याद।
सुंदर अक्स दिखाकर दर्पण
तत्क्षण टूट गया।
बने रहें मेले जीवन में
यही ईश से चाह।
सर्व जनों को मिलें मंज़िलें
दिखे सदा सद राह।
सिखा गया यह पर्व दिलों को
निश्छल प्रेम अथाह
कोना कोना जुटा और, नव
जीवन फूँक गया।
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कल्पना रामानी
प्रस्तुत हैं इस अवसर के कुछ यादगार चित्र
नवगीत परिसंवाद के ससमरण पर की गई फेसबुक मित्रों की कुछ टिप्पणियाँ
9 comments:
बहुत सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है कल्पना जी आपने। सब कुछ फिर से ताजा हो गया। हमारे ये सामूहिक प्रयत्न सार्थक बनें यही मंगल कामना है।
आ0 कल्पना जी ,
क्या सजीव चित्रण किया है आपने । लग रहा है आपके साथ लखनऊ घूम आया हूँ । आ0 पूर्णिमा जी के बारे में तो जितना लिखा जाय कम ही है .... संध्या जी और रामशंकर जी के लिए आदर और बढ गया । दिल में पता नहीं क्यों मेरे दिल में यह प्रश्न उभर रहा है कि काश मुझमे भी इतना सामर्थ्य होता कि मैं भी लखनऊ में आप सभी के साथ होता .....
कल्पना जी ,सुन्दर अभिव्यक्ति लखनऊ यात्रा की और आपकी नवगीत के प्रति रुझान का सजीव वर्णन मंजुल भटनागर.
सर्व प्रथम तो आप सभी को इतने स्नेह से मिलकर हिन्दी साहित्य के लिए कर्तव्यबद्ध देख कर आश्चर्य चकित हु ...और इसी के साथ इतना स्नेह देख कर कल्पना जी से ईर्ष्या हो रही है ...पूर्णिमा जी को अपना गुरु मै भी मान चुकी हु बस आप सबके समक्ष खड़ा रहने का वरदान माँ सरस्वती से मिलना बाकी है ...एक शिष्या के तौर पर मेरा प्रणाम आप सभी गुरु देवी को साथ ही बहुत शुभकामनाए :)
कल्पना दीदी , आपके संस्मरण को पढ़कर हमारे नयनो में चलचित्र उभर आये , और एक एक शब्द ताजगी, स्नेह और उमंग से भरा हुआ हमें भी ताजगी प्रदान कर गया , संध्या जी और वर्मा जी से आपके द्वारा ही हम मिल लिए , पूर्णिमा जी का स्नेह तो मै भी इतनी दूर से महसूस कर चुकी हूँ तो उनके सम्मुख होने पर जो अनुभूति है वह तो अनमोल ही होगी , यह पल सच में यादगार है और अनमोल , ऐसे पल सदैव आत्मविश्वास को दुगना कर देते है , ,,,,,बस अब मेरे भाव शब्दों में नहीं ढल रहे परन्तु एक आत्मिक ख़ुशी जो आपके द्वारा हमें इन शब्दों में मिली , हम भी आपकी इस ख़ुशी में शामिल है , और .............. पुनः हार्दिक बधाई :)
बहुत ही सजीव चित्रण किया है कल्पना जी ने ....एक एक चित्र ताज़ा हो गया आपने जो प्रेम से रसगुल्ले खिलाए कल्पना जी उसका स्वाद अभी तक मुंह में है ......ईश्वर हमें फिर जल्द ही मिलाए ....
सुन्दर रपट की है आपने बधाई।
बड़ी सादगी से आ० रामानी जी ने अपने बारे में कुछ नहीं बताया. काव्य और नवगीत के उनके समर्पण की ही बानगी है उनका ट्रेन में लिखा गया नवगीत. समूह के हम सब सदस्य उनके लखनऊ आगमन के लिए ह्रदय से बहुत बहुत आभारी हैं. इस उम्र में लेखन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता निश्चय ही हम सबके लिए प्रेरणास्रोत है.मेरे घर आगमन के बाद उनके प्रति मन श्रद्धा से भर गया. एक नई ऊर्जा ने अभ्यंतर तक अभिभूत कर दिया. मेरी परम सत्ता से कामना है कि आप दीर्घायु हों. इसी तरह अपने लेखन से सबको चमत्कृत करती रहें. आ० पूर्णिमा जी के शब्दों में "जादू" सबको सम्मोहित करता रहे.
अति सुंदर ...आप के साथ मेरे भी कदम ताल हो गए ....अविस्मरणीय यात्रा के ....बहुत बधाई कल्पना जी ...आदरणीय कल्पना जी, पुर्णिमा जी ...और सभी सम्मानित अभिव्यक्ति समूह को
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